मैं एक पौधा हूँ…
मैं वृक्ष नहीं हूँ,
प्रज्ञ हूँ,
लगभग अदृश्य भी,
किन्तु विशालकाय
यक्ष नहीं हूँ.
मैं तो सूक्ष्म हूँ,
निर्बल हूँ,
चंचल हूँ.
हवा के तेज़ झोंको से,
कंपकपाता हर पल हूँ.
कितने प्राणी,
कितनी लालसा,
मैं तो सबसे डरता हूँ.
भान है यथार्थ का,
तभी तो निवेदन करता हूँ.
न मैं छाँव,
न आशियाना,
और न फल दे पाऊंगा.
यदि अपेक्षा करोगे,
तो उन्ही में दब जाऊंगा .
यदि कुछ करना है,
मेरी खातिर,
तो मुझे प्रेरित करो.
और कहो, कि पौधे,
इस निर्जनता से मत डरो.
क्या पता,
उन शब्दों का जादू,
कुछ इस कदर चल जाए.
और वीरानी के इस पौधे को भी,
कोई हमसफ़र मिल जाए.
बहुत ही खूबसूरत रचना है आपकी।
LikeLike
Beautiful.
LikeLike