मेरा क्या है?

तंग रास्तों में भटकते हुए,
अकस्मात् एक ख़याल आया।
मंज़िल तो कभी देखी न थी,
रास्ता भी अब खो न जाए कहीं।
ये फुटपाथ गरीबों का,
और ये सड़क अमीरों की,
मेरा क्या है?
कुछ भी तो नहीं…

मेरे हिस्से में आये हुए,
दुःख भी हैं और दर्द भी।
सोचा अपनों से परे, क्या पता,
मिल जाए एक सहारा कोई।
पर वो भगवान् भी है गरीबों का,
और सरकार सिर्फ अमीरों की,
मेरा क्या है?
कुछ भी तो नहीं…

तन भी छोडो, मन भी छोडो,
ये जीवन तो एक अहसास है।
भाव ही सबका रास्ता है,
और सबकी तरह, मैं इसका राही।
पर पता चला, ग़म हैं गरीबों के,
और खुशियां सिर्फ अमीरों की,
और मेरा क्या है?
कुछ भी तो नहीं…

Published by Deepak Rana

A writer, a wanderer. Keeps dreaming and aspires to make them true.

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